वीरवर
प्रस्तावना
जननी जन्मभूमि है अपनी जननी को प्रणाम है l
जननी के पावन चरणों में अर्पित तन ,धन ,धाम है l l
जों भी जग में जनम लिया है , उसको एक दिन मरना है l
देश प्रेम हित प्राण लुटाये ,वही तो देश के ललना है l
देश के ऐसे लालो को , कोटि कोटि प्रणाम है l
जननी के पवन चरणों ---------------
प्रथम अंक
द्वारपाल - जय हो ,जय हो , जय हो , नरेश की l
शौर्य , पराक्रम की ,
गौरव औ महिमा की ,
यश ओर बल की ,
सम्पति अचल की ,
वुधि और ज्ञान की ,
बीरता महान की ,
जय हो , जय हो , जय हो ,सरवेश की ,
नृपति नरेश की ,
जय हो , जय हो
राजा - क्या है द्वारपाल l
द्वारपाल - हें पृथ्वीपाल ,
एक तेजाश्वी तरुण ,
हृस्ट ,पुष्ट ,गौरवर्ण ,
सिंह कंध ,अतुलित ब ल ,
दमके है कर्ण कुंडल ,
काटी पे कृपाण जिसके ,
हाथो में कडा है l
मिलने की इच्छा से द्वार पे खड़ा है l
राजा - जावो ,
आदर के साथ दरबार में लावो l
अपनी तो परम्परा है ,
वीरो का सम्मान l
द्वारपाल -शिरोधार्य आपकी ,
आज्ञा श्रीमान l
वीरवर - कराता हू प्रणाम ,
महाराज आपको l
राजा - ईशवर बढाए तरुण ,
तेरे प्राताप को l
राजा - नाम
वीरवर -वीरवर
रजा- परिवार
वीरवर -एक पुत्र ,एक पत्नी सरकार l
राजा -काम
वीरवर -जो कोई न कर सके वह करने की चाह l
राजा - वेतन
वीरवर -पांच सौ स्वर्ण मुद्राए प्रति माह l
राजा -इतना वेतन , जबकि छोटा परिवार l
वीरवर - वशुधेव कुटुम्क्म ही अपना विचार l
राजा - एक द्वार रक्षक की जगह थी खाली l
करना था तुमको बस केवल रखवाली l
पर वेतन अधिक है , काम के अपेक्षा l
वीरवर - काम कोई बडा नहीं , और नहीं ओक्षा l
चाहिए लगन मन , तत्परता स्वेच्छा l
काम को राजन दाम से न तोलिये l
काम ही तो जीवन है ,जीवन न मोलिये l
राजा -इतना वेतन तो राज्य पर है l
वीरवर - इससे कम वेतन हमें न स्वीकार है l
मंत्री - वीरवर के बातो में दम है ,
जितना भी वेतन दे इसके लिये कम है l
एक बार इसको काम तो दीजिये l
फिर अपने दाम का अंजाम लीजिये l l
राजा - ठीक है ,
आप इसको काम पर रखिये ,
कुछ दिन इसके कामो को परखिये l l
द्वितीय अंक
राजा - कौन है , द्वार रक्षक ,
वीरवर -मै हु , वीरवर ,
राजा - सुन रहे हो , किसी नारी के ,
रोने का स्वर l
आंधी रात सारी दुनिया ,सोती है l
कारण क्या ,वह अबला ,यू रोती है l
जावो ,पता लगावो ,
कौन है वह नारी ,
जिसके करुण क्रंदन से हुआ दिल भारी l
वीरवर - जो आज्ञा ,
मेरे प्रिय पालनहारी l
राजा -(अपने मन में )
मै भी तो चल कर देखू ,
क्या अपना फर्ज निभाता हँ l
प्रस्तावना
जननी जन्मभूमि है अपनी जननी को प्रणाम है l
जननी के पावन चरणों में अर्पित तन ,धन ,धाम है l l
जों भी जग में जनम लिया है , उसको एक दिन मरना है l
देश प्रेम हित प्राण लुटाये ,वही तो देश के ललना है l
देश के ऐसे लालो को , कोटि कोटि प्रणाम है l
जननी के पवन चरणों ---------------
प्रथम अंक
द्वारपाल - जय हो ,जय हो , जय हो , नरेश की l
शौर्य , पराक्रम की ,
गौरव औ महिमा की ,
यश ओर बल की ,
सम्पति अचल की ,
वुधि और ज्ञान की ,
बीरता महान की ,
जय हो , जय हो , जय हो ,सरवेश की ,
नृपति नरेश की ,
जय हो , जय हो
राजा - क्या है द्वारपाल l
द्वारपाल - हें पृथ्वीपाल ,
एक तेजाश्वी तरुण ,
हृस्ट ,पुष्ट ,गौरवर्ण ,
सिंह कंध ,अतुलित ब ल ,
दमके है कर्ण कुंडल ,
काटी पे कृपाण जिसके ,
हाथो में कडा है l
मिलने की इच्छा से द्वार पे खड़ा है l
राजा - जावो ,
आदर के साथ दरबार में लावो l
अपनी तो परम्परा है ,
वीरो का सम्मान l
द्वारपाल -शिरोधार्य आपकी ,
आज्ञा श्रीमान l
वीरवर - कराता हू प्रणाम ,
महाराज आपको l
राजा - ईशवर बढाए तरुण ,
तेरे प्राताप को l
राजा - नाम
वीरवर -वीरवर
रजा- परिवार
वीरवर -एक पुत्र ,एक पत्नी सरकार l
राजा -काम
वीरवर -जो कोई न कर सके वह करने की चाह l
राजा - वेतन
वीरवर -पांच सौ स्वर्ण मुद्राए प्रति माह l
राजा -इतना वेतन , जबकि छोटा परिवार l
वीरवर - वशुधेव कुटुम्क्म ही अपना विचार l
राजा - एक द्वार रक्षक की जगह थी खाली l
करना था तुमको बस केवल रखवाली l
पर वेतन अधिक है , काम के अपेक्षा l
वीरवर - काम कोई बडा नहीं , और नहीं ओक्षा l
चाहिए लगन मन , तत्परता स्वेच्छा l
काम को राजन दाम से न तोलिये l
काम ही तो जीवन है ,जीवन न मोलिये l
राजा -इतना वेतन तो राज्य पर है l
वीरवर - इससे कम वेतन हमें न स्वीकार है l
मंत्री - वीरवर के बातो में दम है ,
जितना भी वेतन दे इसके लिये कम है l
एक बार इसको काम तो दीजिये l
फिर अपने दाम का अंजाम लीजिये l l
राजा - ठीक है ,
आप इसको काम पर रखिये ,
कुछ दिन इसके कामो को परखिये l l
द्वितीय अंक
राजा - कौन है , द्वार रक्षक ,
वीरवर -मै हु , वीरवर ,
राजा - सुन रहे हो , किसी नारी के ,
रोने का स्वर l
आंधी रात सारी दुनिया ,सोती है l
कारण क्या ,वह अबला ,यू रोती है l
जावो ,पता लगावो ,
कौन है वह नारी ,
जिसके करुण क्रंदन से हुआ दिल भारी l
वीरवर - जो आज्ञा ,
मेरे प्रिय पालनहारी l
राजा -(अपने मन में )
मै भी तो चल कर देखू ,
क्या अपना फर्ज निभाता हँ l
अपने वेतन की कीमत ,
किस तरह आज चुकाता है l l
नीरव वन
वीरवर -हे मात तुम्हारे क्रन्दन से ,
नभचर ,वनचर भी रोते है l
इन सुन्दर नयनो से आंसू ,
क्यों गंग जमुन से बहाते है l l
क्या कारण तेरे क्रन्दन का ,
हे मात बतायो सही सही l
मम नृपति हृदय अति द्रवित हुआ ,
सह सकते जन की पीर नहीं l l
राज्यलक्ष्मी - है कोई माँ का लाल नहीं ,
कष्टो का करे निवारण l
रो लेने दो जी भर के ,
मत पूछो इसका कारण l l
वीरवर - सौगंध नृपति के चरणों का ,
तेरे समक्ष मै खाता हु l
यदि मै कारण तव कष्टों का ,
तो अपना शीश चदाता हु l l
राज्यलक्ष्मी - यदि पूछ रहा है कारण तु ,
तो सुन तुझको बतलाती हू l
मै हू लक्ष्मी इस राजा की ,
पर नीरव वन मे रोती हू l l
यह नृपति अत्यंत ही प्रिय मुझे ,
मै नहीं चाहती हु खोना l है म्रत्यु अटल त्रय दिवस में ,,
यह सोच सोच आये रोना l l
वीरवर -तब तो इस देश पे कष्टों का ,
भीषण पहाढ टूट जायेगा l
राजलक्ष्मी - मै भी उस पल ही चल दूंगी ,
सब देश कोष लूट जायेगा l l
वीरवर - ऐसा कोई उपाय नहीं , जिससे राजा जी बच जाये l
इस देश कोष की क्षति न हो , जन -जन में लक्ष्मी रच जाये l l
राज्यलक्ष्मी - क्रूर काल के गालो से ,
बच सकता है राजा का प्राण l
पर कौन करेगा निज कर से ,
अपने प्रिय पुत्र का वलिदान l l
वीरवर - हे मात तू रोना बंद करो ,
मै अभी लौट के आता हू l
इस कठिन काल के कंठो की ,
अबिलम्ब ही प्यास बुझाता हू l l
( पर्दा गिरता है )
तृतीय अंक
वीरवर - ( पत्नी से )
हे प्रिये सुअवसर आ पंहुचा ,
राजा का कर्ज चुकाने का l
सर्वस्व न्योछावर कर के भी ,l
राजा के प्राण बचाने का l l
पत्नी - हे नाथ ये तन -धन ऋणी है ,
महीपति के शुभ उपकारो का l
नृप के प्राणों की रक्षा ,
है फर्ज सभी परिवारों का l l
वीरवर - हे प्रिये , तुम्हारी बातो से ,
मम मन को अति विस्वाश हुआ l
पर चुप है प्यारा लाल अहो ,
जीने की लेकर आश नया l l
पुत्र -जीने की आश उन्हें होती ,
जो मरने से घबराते है l
मै उस बाप का बेटा हु ,
जिससे यम भी घबराते है l l
जननी ने जन्म दिया मुझको ,
है मृत्यु अटल वो आनी है l
जो देश -राष्ट्र क लिए मरे ,
वास्तव में वही तो प्रानी है l l
वीरवर - हे लाल काल अति प्यासा
,
चलो उसकी प्यास बुझाये हम l
प्राणों की आहुति देकर के ,
राजा के प्राण बचाये हम l l
(तीनो निकल जाते ही )
लक्ष्मी के पास पहुच कर ),
किस तरह आज चुकाता है l l
नीरव वन
वीरवर -हे मात तुम्हारे क्रन्दन से ,
नभचर ,वनचर भी रोते है l
इन सुन्दर नयनो से आंसू ,
क्यों गंग जमुन से बहाते है l l
क्या कारण तेरे क्रन्दन का ,
हे मात बतायो सही सही l
मम नृपति हृदय अति द्रवित हुआ ,
सह सकते जन की पीर नहीं l l
राज्यलक्ष्मी - है कोई माँ का लाल नहीं ,
कष्टो का करे निवारण l
रो लेने दो जी भर के ,
मत पूछो इसका कारण l l
वीरवर - सौगंध नृपति के चरणों का ,
तेरे समक्ष मै खाता हु l
यदि मै कारण तव कष्टों का ,
तो अपना शीश चदाता हु l l
राज्यलक्ष्मी - यदि पूछ रहा है कारण तु ,
तो सुन तुझको बतलाती हू l
मै हू लक्ष्मी इस राजा की ,
पर नीरव वन मे रोती हू l l
यह नृपति अत्यंत ही प्रिय मुझे ,
मै नहीं चाहती हु खोना l है म्रत्यु अटल त्रय दिवस में ,,
यह सोच सोच आये रोना l l
वीरवर -तब तो इस देश पे कष्टों का ,
भीषण पहाढ टूट जायेगा l
राजलक्ष्मी - मै भी उस पल ही चल दूंगी ,
सब देश कोष लूट जायेगा l l
वीरवर - ऐसा कोई उपाय नहीं , जिससे राजा जी बच जाये l
इस देश कोष की क्षति न हो , जन -जन में लक्ष्मी रच जाये l l
राज्यलक्ष्मी - क्रूर काल के गालो से ,
बच सकता है राजा का प्राण l
पर कौन करेगा निज कर से ,
अपने प्रिय पुत्र का वलिदान l l
वीरवर - हे मात तू रोना बंद करो ,
मै अभी लौट के आता हू l
इस कठिन काल के कंठो की ,
अबिलम्ब ही प्यास बुझाता हू l l
( पर्दा गिरता है )
तृतीय अंक
वीरवर - ( पत्नी से )
हे प्रिये सुअवसर आ पंहुचा ,
राजा का कर्ज चुकाने का l
सर्वस्व न्योछावर कर के भी ,l
राजा के प्राण बचाने का l l
पत्नी - हे नाथ ये तन -धन ऋणी है ,
महीपति के शुभ उपकारो का l
नृप के प्राणों की रक्षा ,
है फर्ज सभी परिवारों का l l
वीरवर - हे प्रिये , तुम्हारी बातो से ,
मम मन को अति विस्वाश हुआ l
पर चुप है प्यारा लाल अहो ,
जीने की लेकर आश नया l l
पुत्र -जीने की आश उन्हें होती ,
जो मरने से घबराते है l
मै उस बाप का बेटा हु ,
जिससे यम भी घबराते है l l
जननी ने जन्म दिया मुझको ,
है मृत्यु अटल वो आनी है l
जो देश -राष्ट्र क लिए मरे ,
वास्तव में वही तो प्रानी है l l
वीरवर - हे लाल काल अति प्यासा
,
चलो उसकी प्यास बुझाये हम l
प्राणों की आहुति देकर के ,
राजा के प्राण बचाये हम l l
(तीनो निकल जाते ही )
लक्ष्मी के पास पहुच कर ),
वीरवर - दीर्घायु नृपति हो मेरे ,
हे लक्ष्मी करो वरण l
हे काल तुम्हारे चरणों में ,
करता सूत शीश ह अर्पण l l
(तलवार चलाता है
सूत के शीश पर )
पत्नी -( कमर से कृपाण निकाल कर )
हे लाल तुम्हारे पीछे ,
तेरी जननी भी आती है l
यह जीवन तेरे बिन सुना ,
जीवन की भेट चदाती है l l
(कृपान अपने पेट में मार लेती है )
वीरवर - हे प्रिये बिछुड कर तुम सबसे ,
मै कब तक जीवन ढोऊंगा l
रहे राजा अमर धरा पर ,
मै काल कलेवा होऊंगा l l
(तलवार से अपना सर काट देता है )
नेपथ्य में
रह गये दंग नृप देखकर ,
यह अपूर्व वलिदान l
लेकर कृपाण उद्दात हुए ,
दे दूंगा मै प्रान l l
राज्यलक्ष्मी -( राजा का हाथ पकर कर )
हे राजन तेरे लिये अहो ,
परिवार पूरा वलिदान हुआ l
भोगो अमरत्वा धरा पर ,
ले वैभव औ सम्मान नया l l
राजा - मै भोगू भौतिक सुखो को ,
बन अमर धरा पर हें माया l
धिक्कार है राजा का जीना ,
जो प्रजा के काम न आ पाया l l
ऐसे वीर सपूतो को ,
खोकर मै ,क्या जी पायूँगा l
यह राज्य भया विष का प्याला ,
मै इसे नहीं पी पायूँगा l l
मर जाने दो मुझे मात ,
मै नहीं चाहता हू जीना l
मर कर अमरत्व मै पायूँगा ,
जीना तो है पल -पल मरना l l
राज्यलक्ष्मी - हे राजन मै प्रसन्न हुई ,
लखि त्याग प्रजा के हेतु अहो l
मांगो इच्छित वर को मांगो ,
तुम हो धर्म के सेतु अहो l l
राजा - हे मात यदि प्रसन्न हो तो ,
सकुटुम्ब वीर पाये जीवन l
न्याय से पथ न विचलित हों ,
जन सेवा में जीवन अर्पण l l
राज्यलक्ष्मी - ऐवामत्स ,हे वत्स सुनो ,
जो जन सेवा में लीन रहे l
जीवन भर साथ निभाती हु ,
बनकर उसके अधीन अहो l l
उपसंहार
जहा धरा के बेटो के शिर ,
कफ़न एक श्रींगार है l
प्राण उन्हें क्या प्यारे होंगे ,
जिन्हें देश से प्यार है l
ऐसे ही सूत की कथा है पावन ,
वीरवर जिसका नाम है l
जननी के पावन चरणों में ,
अर्पित तन -धन धाम है l l
हे लक्ष्मी करो वरण l
हे काल तुम्हारे चरणों में ,
करता सूत शीश ह अर्पण l l
(तलवार चलाता है
सूत के शीश पर )
पत्नी -( कमर से कृपाण निकाल कर )
हे लाल तुम्हारे पीछे ,
तेरी जननी भी आती है l
यह जीवन तेरे बिन सुना ,
जीवन की भेट चदाती है l l
(कृपान अपने पेट में मार लेती है )
वीरवर - हे प्रिये बिछुड कर तुम सबसे ,
मै कब तक जीवन ढोऊंगा l
रहे राजा अमर धरा पर ,
मै काल कलेवा होऊंगा l l
(तलवार से अपना सर काट देता है )
नेपथ्य में
रह गये दंग नृप देखकर ,
यह अपूर्व वलिदान l
लेकर कृपाण उद्दात हुए ,
दे दूंगा मै प्रान l l
राज्यलक्ष्मी -( राजा का हाथ पकर कर )
हे राजन तेरे लिये अहो ,
परिवार पूरा वलिदान हुआ l
भोगो अमरत्वा धरा पर ,
ले वैभव औ सम्मान नया l l
राजा - मै भोगू भौतिक सुखो को ,
बन अमर धरा पर हें माया l
धिक्कार है राजा का जीना ,
जो प्रजा के काम न आ पाया l l
ऐसे वीर सपूतो को ,
खोकर मै ,क्या जी पायूँगा l
यह राज्य भया विष का प्याला ,
मै इसे नहीं पी पायूँगा l l
मर जाने दो मुझे मात ,
मै नहीं चाहता हू जीना l
मर कर अमरत्व मै पायूँगा ,
जीना तो है पल -पल मरना l l
राज्यलक्ष्मी - हे राजन मै प्रसन्न हुई ,
लखि त्याग प्रजा के हेतु अहो l
मांगो इच्छित वर को मांगो ,
तुम हो धर्म के सेतु अहो l l
राजा - हे मात यदि प्रसन्न हो तो ,
सकुटुम्ब वीर पाये जीवन l
न्याय से पथ न विचलित हों ,
जन सेवा में जीवन अर्पण l l
राज्यलक्ष्मी - ऐवामत्स ,हे वत्स सुनो ,
जो जन सेवा में लीन रहे l
जीवन भर साथ निभाती हु ,
बनकर उसके अधीन अहो l l
उपसंहार
जहा धरा के बेटो के शिर ,
कफ़न एक श्रींगार है l
प्राण उन्हें क्या प्यारे होंगे ,
जिन्हें देश से प्यार है l
ऐसे ही सूत की कथा है पावन ,
वीरवर जिसका नाम है l
जननी के पावन चरणों में ,
अर्पित तन -धन धाम है l l