कुछ भी तुक्छ नहीं
सागर से उच्चे पर्वत का ,ऐसा अभिन्न इक नाता है l
कोंख से निकली नदियों को ,सागर का गोद ही भाता है l l
डंक मारती मधुमक्खिया ,देती शुभ शहद मनोहर है l
सौरभ ,सुमन ,सुबास मधुर , इन काँटों की ही धरोहर है l l
रिश्ता सरसिज से भ्रमरों का जाना ,माना ,पहचाना है l
उबड़ -खाबड़ इस धरती के, सीने में स्वर्ण खजाना है l l
कुछ तुक्छ नहीं इस धरती पे ,सबका अपना अस्तित्व अहो l
शबरी के जूठे बेरो में ,था कितना भक्ति ममत्व कहो l l
विद्या वैभव का नया अर्थ ,मानव मन में संचार करो l
शोषित ,दलित उच्चारण कर ,विधना का न अपकार करो l l
मानव वही हुआ जग में ,जिसके नैनो में पानी था l
वह कभी नहीं जग यश पाया ,जो अघकारी ,अभिमानी था l
मानव निर्मित धर्मो खातिर ,मानवता का अपमान न कर l
स्व देह ,गेह के नेह में पड़ ,नैतिकता का संधान न कर l l
तुम सुखी नहीं बहु वैभव पा , यदि हृदय सरोवर सुखा है l
प्रजा राज्य बेमानी है ,यदि एक भी मानव भूखा है l l
श्वानो का भरता पेट नहीं ,देखा हड्डी औ टूट पड़े l
निरखि दीन जिनके उर में ,उपकार का सोता फूट पड़े l
वास्तव में मानव रत्नों में उनकी ही गिनती होती है l
जिनमे उपकार ,दया ,करुणा औ क्षमा भाव सरसती है l l
सागर से उच्चे पर्वत का ,ऐसा अभिन्न इक नाता है l
कोंख से निकली नदियों को ,सागर का गोद ही भाता है l l
डंक मारती मधुमक्खिया ,देती शुभ शहद मनोहर है l
सौरभ ,सुमन ,सुबास मधुर , इन काँटों की ही धरोहर है l l
रिश्ता सरसिज से भ्रमरों का जाना ,माना ,पहचाना है l
उबड़ -खाबड़ इस धरती के, सीने में स्वर्ण खजाना है l l
कुछ तुक्छ नहीं इस धरती पे ,सबका अपना अस्तित्व अहो l
शबरी के जूठे बेरो में ,था कितना भक्ति ममत्व कहो l l
विद्या वैभव का नया अर्थ ,मानव मन में संचार करो l
शोषित ,दलित उच्चारण कर ,विधना का न अपकार करो l l
मानव वही हुआ जग में ,जिसके नैनो में पानी था l
वह कभी नहीं जग यश पाया ,जो अघकारी ,अभिमानी था l
मानव निर्मित धर्मो खातिर ,मानवता का अपमान न कर l
स्व देह ,गेह के नेह में पड़ ,नैतिकता का संधान न कर l l
तुम सुखी नहीं बहु वैभव पा , यदि हृदय सरोवर सुखा है l
प्रजा राज्य बेमानी है ,यदि एक भी मानव भूखा है l l
श्वानो का भरता पेट नहीं ,देखा हड्डी औ टूट पड़े l
निरखि दीन जिनके उर में ,उपकार का सोता फूट पड़े l
वास्तव में मानव रत्नों में उनकी ही गिनती होती है l
जिनमे उपकार ,दया ,करुणा औ क्षमा भाव सरसती है l l