जिसके पास जमीन का ,
छोटा भी न टुकड़ा ,
दुसरे के जमीन पे ,
बसा है जिसका झोपड़ा l
मिट्टी के दो चार वर्तन ,
लुडुके पड़े से ,
आती दुर्गन्ध मानो ,
कचरे सड़े से l
जमी है बिछोना ,
औ ओदना गगन है l
कटि परिधान केवल ,
अन्यथा नगन है l
केवल सताती उसे ,
भूख की अगन है l
हे विकास वादियो ,
जरा रुक कर निहारो तो ,
गाँव का गरीब भैया ,
फिर भी मगन है l
पुस्त दर पुश्तो से ,
करता बनिहारी है l
पत्नी ,पुत्र ,पुत्री सभी ,
उसकी अनुहारी है l
परिश्रम ही चेरी उसकी ,
फिर भी भिखारी है l
पुरुष सिंह उपैति लक्ष्मी ,
यह आदिकाल की बात है l
"सिंह " पुरुष उपैति लक्ष्मी ,
आज चरितार्थ है l
गरीब का गोबर से,
गोबर का गरीब से ,
अनौखा यह नाता है l
दोनों में तीनो अक्षर ,
बराबर ही आता है l
दोनों ही जल कर ,
देते प्रकाश है l
उन्ही के प्रकाश पर ,
निर्भर विकास है l
दोनों ही दूसरो का ,
चूल्हा जलाते है l
पर अपने चूल्हे
जला नहीं पाते है l
सबका विकास ,
कर देता गरीब है l
दोष न पराये का ,
कहता नसीब है
मान्यता पुरानी है ,
भोजन ही भाषा की जननी है l
सात्विक भोजन जह ,
सत्य का परिचायक है ,
राजसी भोजन वही ,
रजोगुण उन्नायक है l
तामसी प्रबृति लोग ,
तामसी भोजन के ,
नित्य -प्रति आदी है l
बोलते तमस से ,
कारण बर्बादी है l
पर ,
गरीब बेचारा ,
खता ,सबका अवाशिस्ट है l
इसलिए शिष्ट है l
गलत हो या सही ,
कहता नहीं "नहीं ",
जी हुजुर ,अच्छा सरकार ,
हे अन्नदाता ,हे माई -बाप l
वाणी से झरती जैसे ,
रस की फुहार l
यही है उस गरीब का ,
सच्चा ब्यवहार l
कष्टों को अपने सीने में समेटे l
सोचता कभी _कभी ,
औंधे मुह लेटे l
गोबर बेचारा तो ,
हमसे भाग्यशाली है l
घूरे के भी दिन बहुरे ,
पर अपनी पतझर तो ,
सबसे निराली है l
गौरी -गणेश बन ,
गोबर पुजवाता है l
इसी बहाने , इसी बहाने ,
दधि ,दूध ,शहद आदि ,
मजे से खाता है l
पर अपनी किश्मत तो देखो विधाता l
भोजन तो दूर ,
कोई डोट भी भैया ,
प्रेम से न खिलाता है l
क्या प्रजातंत्र में ,
ऐसा भी होता है l
सारा जीवन नजरो में ,
सावन ही सोता है l
हे प्रगति वादियों ,
तुम्ही बताओ l
बहुत सताया तुने ,
अब न सताओ l
कब मेरे जीवन का ,
योवन खिलेगा l
बाती भरी दिये को ,
तेल कब मिलेगा l l
कामना
विकास के पथ पर हो अग्रसर ,
औ भ्रस्टाचार का नाम न हो l
दोषी को दंड बराबर हो ,
निर्दोषों का अपमान न हो l
समूल नष्ट हो भ्रष्टाचार ,
यही अपना अभियान रहे l
सम्पूर्ण विश्व में भारत का ,
आन ,वान औ शान रहे l l
छोटा भी न टुकड़ा ,
दुसरे के जमीन पे ,
बसा है जिसका झोपड़ा l
मिट्टी के दो चार वर्तन ,
लुडुके पड़े से ,
आती दुर्गन्ध मानो ,
कचरे सड़े से l
जमी है बिछोना ,
औ ओदना गगन है l
कटि परिधान केवल ,
अन्यथा नगन है l
केवल सताती उसे ,
भूख की अगन है l
हे विकास वादियो ,
जरा रुक कर निहारो तो ,
गाँव का गरीब भैया ,
फिर भी मगन है l
पुस्त दर पुश्तो से ,
करता बनिहारी है l
पत्नी ,पुत्र ,पुत्री सभी ,
उसकी अनुहारी है l
परिश्रम ही चेरी उसकी ,
फिर भी भिखारी है l
पुरुष सिंह उपैति लक्ष्मी ,
यह आदिकाल की बात है l
"सिंह " पुरुष उपैति लक्ष्मी ,
आज चरितार्थ है l
गरीब का गोबर से,
गोबर का गरीब से ,
अनौखा यह नाता है l
दोनों में तीनो अक्षर ,
बराबर ही आता है l
दोनों ही जल कर ,
देते प्रकाश है l
उन्ही के प्रकाश पर ,
निर्भर विकास है l
दोनों ही दूसरो का ,
चूल्हा जलाते है l
पर अपने चूल्हे
जला नहीं पाते है l
सबका विकास ,
कर देता गरीब है l
दोष न पराये का ,
कहता नसीब है
मान्यता पुरानी है ,
भोजन ही भाषा की जननी है l
सात्विक भोजन जह ,
सत्य का परिचायक है ,
राजसी भोजन वही ,
रजोगुण उन्नायक है l
तामसी प्रबृति लोग ,
तामसी भोजन के ,
नित्य -प्रति आदी है l
बोलते तमस से ,
कारण बर्बादी है l
पर ,
गरीब बेचारा ,
खता ,सबका अवाशिस्ट है l
इसलिए शिष्ट है l
गलत हो या सही ,
कहता नहीं "नहीं ",
जी हुजुर ,अच्छा सरकार ,
हे अन्नदाता ,हे माई -बाप l
वाणी से झरती जैसे ,
रस की फुहार l
यही है उस गरीब का ,
सच्चा ब्यवहार l
कष्टों को अपने सीने में समेटे l
सोचता कभी _कभी ,
औंधे मुह लेटे l
गोबर बेचारा तो ,
हमसे भाग्यशाली है l
घूरे के भी दिन बहुरे ,
पर अपनी पतझर तो ,
सबसे निराली है l
गौरी -गणेश बन ,
गोबर पुजवाता है l
इसी बहाने , इसी बहाने ,
दधि ,दूध ,शहद आदि ,
मजे से खाता है l
पर अपनी किश्मत तो देखो विधाता l
भोजन तो दूर ,
कोई डोट भी भैया ,
प्रेम से न खिलाता है l
क्या प्रजातंत्र में ,
ऐसा भी होता है l
सारा जीवन नजरो में ,
सावन ही सोता है l
हे प्रगति वादियों ,
तुम्ही बताओ l
बहुत सताया तुने ,
अब न सताओ l
कब मेरे जीवन का ,
योवन खिलेगा l
बाती भरी दिये को ,
तेल कब मिलेगा l l
कामना
विकास के पथ पर हो अग्रसर ,
औ भ्रस्टाचार का नाम न हो l
दोषी को दंड बराबर हो ,
निर्दोषों का अपमान न हो l
समूल नष्ट हो भ्रष्टाचार ,
यही अपना अभियान रहे l
सम्पूर्ण विश्व में भारत का ,
आन ,वान औ शान रहे l l
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